“हमारे जानी दुश्मन का नाम है अज्ञान” : सावित्रीबाई फुले

By: Aatir Arshad मुम्बई (बॉम्बे) से 66 किलोमीटर दूर 3 जनवरी 1831 सोमवार के दिन महाराष्ट्र के नैगाओं के एक किसान परिवार मे जन्म होता है एक बच्ची का जिसे उसके परिवार ने सावित्रीबाई नाम दिया।
सावित्रीबाई फुले जिन्होंने अपने पति ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर भारत का पहला बालिका विद्यालय की शुरुआत की और भारत की पहली बालिका विद्यालय की प्रिंसिपल भी बनी। भारत का पहला बालिका विद्यालय लड़कियों की शिक्षा के लिए खोला गया था और सावित्रीबाई फुले को भारत की पहली महिला शिक्षक के तौर पर भी जाना जाता है।

सावित्रीबाई फुले बनीं थी देश के पहले बालिका विद्यालय की प्रिंसिपल
सावित्रीबाई फुले की शादी 9 साल की उम्र में ही ज्योतिबा फुले से हो गई थी. उनके पति ज्योतिबा फुले समाजसेवी और लेखक थे. ज्‍योतिबा फुले ने स्त्रियों की दशा सुधारने और समाज में उन्‍हें पहचान दिलाने के लिए उन्‍होंने 1854 में एक स्‍कूल खोला. यह देश का पहला ऐसा स्‍कूल था जिसे लड़कियों के लिए खोला गया था. लड़कियों को पढ़ाने के लिए अध्यापिका नहीं मिली तो उन्होंने कुछ दिन स्वयं यह काम करके अपनी पत्नी सावित्री को इस योग्य बना दिया.
सावित्रीबाई फुले भारत के पहले बालिका विद्यालय की पहली प्रिंसिपल बनीं. कुछ लोग आरंभ से ही उनके काम में बाधा बन गए. लेकिन ज्‍योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले का हौसला डगमगाया नहीं और उन्‍होंने लड़कियों के तीन-तीन स्‍कूल खोल दिए. सावित्रीबाई की साड़ी
उन्नीसवी सदी मे जब सती प्रथा समाज का एक हिस्सा हुआ करता था, लड़की के जन्म पर शोक मनाया जाता था, जन्म लेने से पहले या जन्म लेने के बाद लड़की को मार दिया था जाता उस समय मे जब सावित्रीबाई लड़कियों की पढ़ाई की बात करती थी तो समाज उन्हें घृणा की नज़र से देखता था।
जब सावित्रीबाई बालिका विद्यालय मे पढ़ाने जाती तो रास्ते मे लोग उनपर पत्थर और ईंट मारते थे, कीचड़ फेक देते थे उनके ऊपर और इन्ही कारणों से सावित्रीबाई अपने थैले मे एक साड़ी लेकर चलती थी ताकि जब वो विद्यालय पहुँचे तो पढ़ाने से पहले कीचड़ लगी हुई साड़ी को उतार कर दूसरी साफ साड़ी पहन सके।

अगर आज इस देश मे महिलाएँ शिक्षा हासिल कर पा रही है तो उसका श्रेय सावित्रीबाई फुले को जाता है जिन्होंने ने भारत मे महिला शिक्षा की पहली नींव रखी, समाज से लड़ी, समाज को महिलाओं की शिक्षा के प्रति जागरूक की और महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए लड़ना सिखाया। लोगों की सेवा करते हुए दुनिया को कहा था अलविदा
सावित्रीबाई ने अपने बेटे के साथ मिलकर अस्पताल भी खोला था. इसी अस्पताल में प्लेग महामारी के दौरान सावित्रीबाई प्लेग के मरीज़ों की सेवा करती थीं. एक प्लेग के छूत से प्रभावित बच्चे की सेवा करने के कारण उनको भी यह बीमारी हो गई, जिसके कारण उनकी 10 मार्च 1897 को मौत हो गई.

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