समीक्षा: “बीहड़ में साइकिल” ; चंबल की बहुआयामी सामाजिक विरासत का दस्तावेज़

चंबल की बहुआयामी सामाजिक विरासत का दस्तावेज़
                                                                      – दुर्गेश कुमार चौधरी
 
ज्ञान का स्रोत क्या है ?
कहां तक आप देख सकते हैं, कितना सूक्ष्म और कितना वृहद ?
ये बात इस पर निर्भर करता  है कि क्या वास्तविक रूप में आप कुछ जानना चाहते हैं भी या नहीं, कुछ बदलाव चाहते हैं या नहीं,  या जानकरियां आपके लिए मनोरंजन का साधन मात्र हैं। ये दर्शनशास्त्र की भूमिका नहीं। बात है एक नई पुस्तक की। हालिया समय में राष्ट्रीय स्थितियों व कई अन्य गंभीर पहलुओं पर कुछ बेहतरीन पुस्तकें आईं। अंतिम पुस्तक जिसपे नज़र टिकी थी, वो थी ‘मोदीनामा’, लेखक थे सुभाष गाताड़े। वहीं मार्च  2020 में चंबल फाउंडेशन के प्रकाशन में एक नयी पुस्तक आई है, ‘बीहड़ में साइकिल’। लेखक हैं घुमंतू और खोजी पत्रकार शाह आलम। पुस्तक शाह आलम की  एक लम्बी और कठिन यात्रा की उपज है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश व राजस्थान की सीमाओं को छूता एक भौगोलिक परिक्षेत्र है ‘चंबल’ ये उसी घाटी की हकीकत को जानने की यात्रा है। 
 
   चंबल का जिक्र जेहन में दस्यु सरगनाओं के ठीहों,  उनकी लूट व कारस्तानियों का चित्र खींचता है। ये चित्र अनायास नहीं। ये देन है, सिनेमा की व अन्य ऐसे स्रोतों की जिनकी छाप हमारे मस्तिष्क पे जम जाती है। पर क्या चंबल इतना ही है? या इससे इतर भी कुछ जानने को है। इस सवाल का उत्तर आपको इस पुस्तक में मिल सकता है। भीषण गर्मी में कई सौ किलोमीटर की थकान व समस्याओं की साझी यात्रा, कई अभावों में, साइकिल से, ये है इस पुस्तक की नींव। बकौल शाह आलम ये यात्रा के दौरान तैयार की गयी डायरी या एक यात्रा वृत्तांत हैं, पर मेरे लिए सिर्फ इतना मान पाना संभव नहीं। ये चंबल की सामाजिक विरासत के बहुआयामी पक्षों का दस्तावेज़ है।  
 
    शाह आलम ने सामजिक असमानताओं से उपजी विसंगतियों की कल्पना से नहीं लिखा है , मझे पत्रकर की तरह ग्राउंड जीरो पे जाकर सच को सामने लाया गया है। पुस्तक की हर नयी घटना व महत्वपूर्ण बात एक आकर्षित शीर्षक व चित्रों के साथ रखी गयी है। चंबल की स्वतंत्रता आंदोलन में भूमिका, उससे जुड़े लोगों से शुरू हो कर, वहां की सामाजिक-आर्थिक स्थिति, राजनीतिक दृष्टि, पर्यावरण व संभावनाएं सभी पहलुओं पर बात की गयी है। इन सभी पहलुओं को शाह आलम ने बेहद सरल सपाट भाषा में बिना लाग लपेट उकेर दिया है। कुछ जगह ये कहानियों जैसी लगती हैं, पर आप इसे कहानी समझने की भूल न करें। बार- बार सामाजिक विषमताओं से उपजी स्थिति का चित्रण, पिछली कई घटनाओं की याद ताज़ा कराती रहती हैं।  ये सच है,  जिसे नीति नियंता उजागर नहीं होने देना चाहते।  बड़े- बड़े टी वी स्क्रीनों पर तमाम विज्ञापनों की चकाचौंध के बीच सरकारी विज्ञापनों के खोखले दावे, पर चुप रहने की बाध्यता के बीच तालियों की गड़गड़ाहट और भर-पेट खाने के बाद बढ़िया नींद। बुद्धि पे पर्दा डालने के लिए काफी है। सरकारी विज्ञापनों पे खर्च होते करोड़ो रुपये, पेट्रोल पम्पों पर लगे होर्डिंग और उसपे लिखी बिंदुवार बातें, ये सब सरकारी योजनाएं कैथोली की 70 वर्षीय रानी देवी की चौखट तक दम तोड़ देती हैं। पारम्परिक ईंधन मतलब चूल्हे के लिए लकड़ी तोड़ती उनकी तस्वीर। गाँव की लाखों मांओं, बहनों की आँख से धुंआ न निकलने देने की कसमें खाती तेज़ आवाज़, यहाँ तक पहुँचते पहुँचते भर्रा जाती है, पृष्ठ संख्या 29, यही नहीं बीहड़ तक आते आते कितनी ही योजनाएं, कितने ही पैकेज और कितने ही वादे  धराशायी हो गए, इसे तथ्यों व बयानों के आधार पर लिखा गया है। 
 
    ‘लक्ष्मी बाल्मीकि की उम्र अभी महज 27 साल की है।… लक्ष्मी के अनुसार सरकार किसी भी योजना का लाभ उन्हें नहीं मिला। सरकारी आवास, राशन, शौचालय, बिजली कुछ भी नहीं। पेट की भूख शांत करने के  लिए उच्च जातियों के यहाँ मानव मल उठाने का काम करना पड़ता है। तब  जाकर रूखी सूखी रोटी नसीब होती है। बच्चा सांस भरने लगा और आखिरकार उसकी मौत हो गयी।…क़र्ज़ लेकर डॉक्टर से बच्चेदानी निकलवानी पड़ी।… लोग छूत मानते हैं दूकान वाले दूर से सामान फेंक कर देता है। पृष्ठ 69 , ऐसे सैकड़ों उदाहरण इस पुस्तक में संग्रहीत हैं |
 
मैला ढोने की प्रथा दशक पहले कानून बना कर ख़त्म कर दी गयी थी। लक्ष्मी की कहानी कई दशकों के झूठ को कुछ  ही देर के साक्षात्कार में सामने ले आती है। 
 
   पुस्तक दस्युओं व उनके परिवारों की वर्तमान स्थिति को बखूबी बयां करती है। कई पूर्व दस्युओं के संस्मरण व  साक्षात्कार नए पहलू बताते हैं। एक जगह फूलन देवी के परिवार का जिक्र उनकी बहन व मां को आधार बना के किया गया है। ‘रामकली कहती हैं कोटेदार राशन कार्ड बनाने के 500 रुपये घूस मांगता है। मैं महीनों से बीमार हूँ, चक्कर आते हैं, इलाज करने के पैसे नहीं हैं, घूस कहाँ से दूँ? वह बताती हैं कि बेटे की बीमारी में 50 हज़ार क़र्ज़ लिया था, अभी 10 हज़ार बकाया है।’ पृष्ठ 78 ऐसी तमाम सच्चाईयां परत दर परत पुस्तक में खुलती चली गयी हैं।  साथ ही कई जाने अनजाने  क्रांतिकारियों से उनके बलिदानों से भी पुस्तक परिचित कराती है। इतिहास के कई नए पहलू पहली बार सामने आये हैं। बीहड़ में प्राकृतिक ताने-बाने की  खोज भी की गयी है। चंबल सफारी जैसी सरकारी योजनाओं की बात भी है। इतनी बातों के साथ एक और बात, फ़िल्मी दुनियां का चंबल से जुड़ाव व  उससे उपजती संभावनाओं पर भी पुस्तक में चर्चा  हुई है। बाकी आप पढ़ के जानें। हर नए पन्नें के साथ जीवन के कुछ उभरे, कुछ दबे, कुछ चमकते, कुछ स्याह पहलु सामने आते रहते हैं। ऐसे में मोहभंग की स्थित ही नहीं बनती।  
 
     सबसे कठिन होता है सच तक पहुंचना। वो सच जो इतिहास से खोजना है वो और कठिन है। कठिन है क्रांतिकारी विरासतों को खंगालना, समाजों की हकीकतों को पढ़ना, सांस्कृतिक पहलुओं को समझना, राजनितिक दग़ाबाजियों को उजागर करना और कठिन है। भीषण गर्मी में चंबल घाटी के बीहड़ो की किलोमीटरों की एक लम्बी साइकिल यात्रा। भीषण, तपती गर्मी, आग उगलती जमीन और कुछ जानने की जिज्ञासा। ये है, घुमंतू पत्रकार शाह आलम की पुस्तक ‘बीहड़ में साइकिल’। ये यात्रा सच को जानने की यात्रा। 
 
       चंबल फाउंडेशन से प्रकाशित शाह आलम की पुस्तक ‘बीहड़ में सइकिल’ 200 पेज का यात्रा वृत्तांत है। सामाजिक शोध है। पेपरबैक में आयी पुस्तक के पन्ने, शब्दों का आकार और 225 रुपये मूल्य सभी कुछ काफी बेहतर है। रोमांच और रोचकता के साथ बेहद सरल शब्दावली, सपाट भाषा आपको बोर होने से बचाएगी। चंबल की समग्रता, उसके नाटकीय रूपान्तरणों से अलग वास्तविकता से रूबरू होना है तो ये पुस्तक एक बेहतरीन माध्यम है।
 
 
पुस्तक        : बीहड़ में साइकिल
लेखक : शाह आलम
भाषा : हिन्दी
विधा  : यात्रा वृत्तांत
पृष्ठ    : 200
मूल्य  : 225 रुपये
प्रकाशक: चंबल फाउंडेशन
 
यह समीक्षा दुर्गेश कुमार चौधरी ने किया है जो असिस्टेंट प्रोफेसर (हिन्दी) हैं
 
 
 

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