जामिया मिल्लिया इस्लामिया (नई दिल्ली) के दूसरे अमीरे जामिया (चांसलर) डॉ मुख़तार अहमद अंसारी साहब का निधन हुए 10 मई 2017 को पूरे 81 साल बीत चुके हैं। वे 25 दिसंबर 1880 को पूर्वी उत्तर प्रदेश के यूसुफ पुर मोहम्मदाबाद में पैदा हुए थे। डाक्टर साहब किसी ज़रूरी काम से मसूरी (देहरादून) गए हुए थे जहां से रेल द्वारा वापस दिल्ली आते समय अचानक दिल की हरकत बंद हो जाने से छप्पन साल की उम्र में 10 मई 1936 को उनका निधन हो गया, और जामिया मिल्लिया इस्लामिया के कब्रिस्तान में उनकी अंत्येष्टि हुई।
जामिया के संस्थापक, राष्ट्रपति डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन साहब ने डॉक्टर अंसारी साहब के निधन पर अपने शोक सन्देश में लिखा था:
“…. (हिंदू-मुस्लिम एकता) इस काम के लिये उन्होंने अपनी सभी चिंताओं और समस्याओं को भुलाकर कांग्रेस की अध्यक्षता 1927 में स्वीकार कर ली, इसी की ख़ातिर जामिया मिल्लिया के कमज़ोर पौधे को सींचने की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली, क्योंकि देश का रंग और देश वालों के ढंग देखकर उन्हें विश्वास हो गया था कि नए भारत के लिए नए लोगों की ज़रूरत है, ऐसे लोगों की जो अपनी चीज़ों पर भरोसा रखें, उन्हें बरतें, उन्हें तरक़्क़ी दें, ताकि दूसरों की अच्छी बातों को समझें और उनका सम्मान करें, ख़ुद मज़बूत हों और दूसरों की मज़बूती से डरें नहीं, माँगें ही नहीं देने की कुछ क्षमता भी रखते हों, और देने की कुछ हिममत भी रखते हों। मुसलमानों में ऐसे आदमी पैदा करने के लिए उन्होंने अपनी उम्मीदें इस शिक्षा संस्थान से बांधी थीं और इसके विकास को वह देश की सबसे बड़ी सेवा समझते थे।”
डॉक्टर अंसारी साहब ने सात साल की उम्र में अपने वतन का मिडिल स्कूल छोड़ा और फिर विक्टोरिया स्कूल हैदराबाद चले गए। बाद में मद्रास मेडिकल कॉलेज में डॉकटरी की शिक्षा प्राप्त की, उसके बाद इंग्लैंड गए जहां से उन्होंने 1905 में मास्टर्स ऑफ मेडिसिन और मास्टर्स ऑफ सर्जरी की डिग्रियां हासिल कीं। इस शिक्षा के बाद डॉक्टर साहब ने लंदन में लॉक अस्पताल और चेयरिंग क्रॉस अस्पताल में कुछ समय काम किया।
सर्जरी के क्षेत्र में उनका स्थान मार्ग दर्शक भारतीयों में है। उनकी चिकित्सा सेवाओं के सम्मान में आज भी चेयरिंग क्रॉस अस्पताल लंदन में एक वार्ड उनके नाम पर है। दरियागंज दिल्ली, मुज़फ्फ़रनगर, बुलंदशहर और दुसरे शहरों में अंसारी रोड, जामिया मिल्लिया का भव्य औडीटोरीयम और वहॉ का स्वास्थ्य केंद्र भी डॉक्टर अंसारी साहब के नाम से ही जाने जाते हैं।
इंग्लैंड से वापसी पर डॉक्टर साहब ने 1910 में फ़तेहपुरी, दिल्ली में अपना क्लीनिक खोला। सामाजिक व्यक्तित्व के साथ-साथ वे एक महान राजनीतिक व्यक्ति भी थे। वे मुस्लिम लीग की मुस्लिम अलगाववाद नीति के कड़े विरोधी थे और हिन्दू-मुसिलम एकता को कमज़ोर करने वाले हर क़दम को नापसंद करते थे। आम मुसलमान की रोज़मर्रा की समस्याओं में उन्हें गहरी दिलचस्पी थी और कमज़ोर वर्गों का कल्याण उनकी सोच का केंद्र बिनदू था। राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक नेता की हैसियत से डाक्टर साहब कई बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के महासचिव रहे, और 1927 में कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए।
डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन साहब एक जगह डॉक्टर अंसारी साहब के बारे में फ़रमाते हैं:
“डॉक्टर अंसारी साहब ने जिस दिन से दुनिया के व्यावहारिक क्षेत्र में क़दम रखा, उनके व्यक्तित्व ने सबका मन मोह लिया, क्योंकि वे नेक थे, सच्चे थे, ईमानदार थे, उदार थे, साथियों की ख़ुशी को अपनी ख़ुशी और उनके ग़म को अपना ग़म जानते थे। इससे पहले कि उनकी राजनीतिक सेवाएं उन्हें प्रसिद्ध करें, हज़ारों आदमी उन्हें अपना समझने लगे थे। उनकी सूझबूझ, सोच विचार, विनम्रता और त्याग ने बहुतों को उनका प्रशंसक बनाया, लेकिन उनके प्यार और उनकी सहानुभूति ने कहीं अधिक …. लोगों पर अपना जादू किया। “
जामिया के संस्थापक हकीम अजमल ख़ॉ साहब के निधन के बाद डॉक्टर अंसारी साहब 1928 में दूसरे अमीरे जामिया (चांसलर) निर्वाचित हुए और अपने जीवन के अंत तक इस पद पर आसीन रहकर जामिया के पाैधे को सींचते रहे।
हम यह समझते हैं कि जामिया मिल्लिया इस्लामिया (नई दिल्ली) केवल एक शैक्षणिक संस्था ही नहीं बल्कि ऐतिहासिक रूप में यह एक ऐसा आंदोलन था जिसने महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मुद्दों पर अपनी गहरी छाप छोडी जो आधुनिक भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। और एैसा क्यों न हों जबकि जामिया का जन्म ही भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की कोख से हुआ। राष्ट्रपिता गांधीजी के नेतृत्व में इसका शिलान्यास 29 अक्टूबर 1920 को अलीगढ़ विश्वविद्यालय से विद्रोह के परिणामस्वरूप शेख़ुल हिंद मौलाना महमूद हसन साहब के मुबारक हाथों से रखा गया। शेख शेख़ुल हिंद ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी एक प्रसिद्ध धर्मगुरू थे। यही कारण है कि जामिया भारत की ही नहीं बल्कि दुनिया की वह एकमात्र संस्था है जिसके संस्थापकों और निर्माताओं की सूची में बड़ी संख्या उन बहादुर और अभिमानी व्यक्तियों की है जो राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ अपनी जान की बाज़ी लगाये हुए थे।
जामिया का इतिहास एवं संस्थापकों और निर्माताओं के जीवन का अध्ययन आज के हालात में हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। भारत की स्वतंत्रता और विकास के लिए जामिया के त्याग और बलिदान की अनन्त कथाएँ भारतीय क़ौम और विशेषतः मिल्लते इस्लामिया की बहुमूल्य विरासत है जिसका अध्धयन न केवल हमें आगे बढ़ने, विकास के नए चरण तय करने, जटिल समस्याओं को सुलझाने में हिममत देगा और ऊर्जा प्रदान करेगा बल्कि हमारे उद्देश्य और यात्रा की दिशा को भी ठीक रखेगा।
आजकल तुर्की और भारत के रिश्तों पर भी मीडिया, ख़ासकर उर्दू अख़बारों में बातचीत की जा रही है। इस संबंध में जब जामिया की तरफ़ नज़र लौटती है तो पता चलता है कि जामिया के संस्थापकों ने तो उसमानिया सल्तनत के समर्थन में ख़िलाफ़त आंदोलन चलाया और उसे गांधीजी के असहयोग आंदोलन के साथ जोड़कर भारत की स्वतंत्रता के संघर्ष को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाया। उनहों ने ख़िलाफ़त आंदोलन का जन्म होने से कहीं पहले, जब उसके अस्तित्व की कल्पना भी नहीं थी, तब मानवीय अाघार पर तुर्कों की मदद की। हमारे अमीरे जामिया (चांसलर) डॉ अंसारी साहब ने तो वर्ष 1912 में एक भारतीय टरकिश मेडिकल मिशन का नेतृत्व किया और इसके लिए उन्हों ने फतेहपुरी दिल्ली में अपनी मेडिकल प्रैक्टिस भी छोड़ी। घर में जो कुछ था बेच दिया और घायल तुर्कों की मरहम पट्टी और चिकित्सा उपचार के लिए चले गए। यह वह समय था जब तुर्कों को बलक़ान युद्ध और लीबिया में भयंकर जानी व माली नुक़सान उठाना पड़ा था। उसमानिया सल्तनत की आंतरिक पुरानी और कमज़ोर स्थिति का लाभ उठाते हुए कुछ यूरोपीयन देशों के गठबंधन में शामिल ‘बलक़ान लीग’ ने युद्ध की घोषणा कर दी थी।सलतनत को (1912-1913) इस युद्ध का सामना करते हुए अपने कई क्षेत्रों से हाथ धोना पड़ा था। इसी युद्ध में लीबिया भी हाथ से निकल कर इटली के क़ब्ज़े में चला गया था। यहाँ एक बात दिलचस्प है कि युद्धक्षेत्र में पहली बार पश्चमी ताक़तों ने विमानों का इस्तेमाल किया था। आंतरिक और बाहरी अराजकता का यह दौर आखिरकार 1 नवंबर 1922 को उसमानिया सल्तनत के अंत के साथ अपने चरम को पहुंचा और देश की बागडोर तुर्की राष्ट्रीय आंदोलन के अध्यक्ष और तुर्की गणराज्य के संस्थापक और आर्किटेक्ट मुस्तफा कमाल पाशा अतातुर्क के हाथ में आ गई। उन्होंने बाद में अपने विशेष नज़रिए के तेहत तुर्की का आधुनिकरण किया।। इसी लोकतांत्रिक व्यवस्था के आधार पर आज रजब तय्यब ओरदोगान साहब तुर्की में सत्ताधारी हैं। विश्व के बदलते सत्ता संतुलन में उसमानिया सल्तनत के पतन के यूं तो विभिन्न कारण हैं लेकिन आधुनिक शिक्षा द्वारा पश्चिम का वैज्ञानिक और टैकनोलोजीकल विकास, युद्ध उपकरणों में उसका वर्चस्व तथा सलतनत के ख़िलाफ़ ख़ुद तुर्की के अंदर विरोध, और अरब देशों में सल्तनत विरोधी स्वतंत्रता आंदोलनों ने इसके पतन में निर्णायक भूमिका निभाई।
डॉक्टर अंसारी साहब अपना मेडिकल मिशन पूरा करके तुर्की से जब भारत लौटे तो उनकी जेब बिलकुल ख़ाली थी, इसलिए फिर वापस आकर अपना क्लीनिक शुरू किया, और इसे जमाया लेकिन जब प्रैक्टिस कुछ संभली तो ख़िलाफ़त आंदोलन शुरू हो गया, और डाकटर साहब 1920 में ख़िलाफ़त प्रितिनिधि मंडल लेकर इंग्लैंड चले गए जिसका ख़रचा वहन करने के लिए उन्हें अपनी मोटर कार तक बेचनी पड़ी। इससे आसानी से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि कोई तो जुनून था जो देश और मिल्लत की तरक़्क़ी के लिए जामिया संस्थापकों और निर्माताओं के सिर में समाया हुअा था और वे कठिन रास्तों पर लगातार आगे बढ़ रहे थे।
वर्तमान उपराष्ट्रपति महामहिम श्री हामिद अंसारी साहब का पारिवारिक संबंध भी हमारे अमीरे जामिया डॉक्टर मुख़तार अहमद अंसारी साहब से है जिनके पूर्वजों का सिलसिला हज़रत अबू अय्यूब अंसारी तक पहुँचता है। महामहिम हामिद अंसारी साहब ने भी बतौर अतिथि जामिया में पढ़ाया है।
यह है वह जामिया आंदोलन जिसका प्रभाव, छाप, हिस्सेदारी और योगदान की कथाएँ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। अब हमारा यह कर्तव्य है कि हम अपनी इस शानदार और गौरवशाली विरासत के विवरण का अध्ययन करें और इसे समझें तथा अपनी इस अनमोल विरासत को अगली पीढ़ियों तक पहुंचाएं ताकि जामिया के संस्थापकों और निर्माताओं के इस मिशन को आगे बढ़ाया जा सके जिसका लक्ष्य ‘स्वतंत्र शिक्षा’ की ओर बढ़ना और ‘शिक्षा व समाज’ के रिश्ते को मज़बूत करना था। आसान शब्दों में इस लक्ष्य को यूं समझा जा सकता है कि शिक्षा, सेवा और संघर्ष को इकठ्ठा करके उसके द्वारा एक ऐसा समाज बनाने के सपने को साकार करना जिस में मानवता, ज्ञान और मेहनत का आदर और वर्चस्व हो।
(लेखक : ग़िज़ाल मैहदी,भूतपूर्व अध्यक्ष, जामिया मिल्लिया इस्लामिया अलुमुनाई एसोसिएशन, रियाद)