दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति:चांद का मुंह टेढ़ा है

दिल्ली विश्वविद्यालय:
एक दिन मैंने डीयू कैंपस स्थित पटेल चेस्ट के पास एक चाय की दुकान पर दिल्ली विश्वविद्यालय से अभी-अभी ग्रेजुएट हुए एक प्रतिभाशाली छात्र से मिल रहा था (महाशय ऐसे छात्र हैं जो चेहरे से ही प्रतिभाशाली लगते हैं। बढ़ी हुई दाढ़ी, अस्त व्यस्त कपड़े और हर बात शायराना/फलसफाना अंदाज में कहते हैं।) जब मैंने उनसे डीयू के तथाकथित आधुनिक परिवेश और छात्र राजनीति से संबंधित उनका अनुभव पूछा तो वो पहले चुप हो गए फिर बोले- ‘डीयू भ्रमों का महाजाल है, नौजवान सपनों और उम्मीदों की कब्रगाह है।’ मैंने उस साथी की बात सुन कर अपने आप को ये मनवाने की तमाम कोशिशें कीं कि ये उसकी अपनी निजी कुंठा हो सकती है, या उसने ऐसे ही बोल दिया। लेकिन बुद्धि की तलवार मानती ही नहीं, वो कहती है कि सच्चाई चुप्पी में भी चीखती है, उसे दबाये रखना आसान नहीं है।

डीयू को देश के उच्च शिक्षा, खासकर, मानविकी के सबसे बड़े केंद्र के रूप में प्रतिष्ठा मिली हुई है। दिल्ली भर में फैले इस विश्वविद्यालय ने अनेक बुद्धिजीवी, कलाकार, राजनीतिज्ञ, अफसर और अन्य क्षेत्रों में नामचीन हस्तियां देश और दुनिया को दी हैं। लेकिन क्या डीयू की स्थिति आज भी वही है? क्या डीयू का मतलब केवल प्रवेश के लिए सौ फीसदी कट ऑफ का होना है? क्या डीयू होने का मतलब केवल रूमानी सर्दियों में महीनों तक चलने वाले और करोड़ों रुपये फूंककर होने वाले वो भोंडे प्रदर्शन भर हैं जिन्हें फेस्ट कहते हैं? क्या इस विश्वविद्यालय की सांस्कृतिक सामजिक झलकी केवल इन विसंगतियों भरे आयोजनों में होती है? ऐसा क्या हो रहा है की डीयू के छात्रों की राजनीतिक सामजिक चेतना का निर्माण ऐसा हो रहा है की चुनाओं के ठीक पहले कॉलेजों के सामने बस लग जाती है और उसमें छात्र बैठ जाते हैं। बड़ी आसानी से एक दिन किसी बार, रेस्टोरेंट या वाटर पार्क में पार्टी देकर इनके प्रतिनिधि इनका मत ले जाते हैं। क्या छात्रों से संबंधित सारे मुद्दे खत्म हो चुके हैं? क्या अब डीयू में छात्रों को कोई परेशानी नहीं होती है? फिर क्यों डीयू अपना प्रतिनिधि चुनने में इतनी लापरवाही करता है? डीयू आज तीसरी दुनिया के देशों और भारत में अपनी जड़ जमा रही नव पूंजीवादी व्यवस्था से पैदा हुई नई पीढ़ी, नई शिक्षा व्यवस्था के कारण छात्र राजनीति में संघर्ष के तौर-तरीकों और संरचनात्मक बदलावों का सबसे बड़ा उदहारण है। हर मायनों में डीयू के अपने मानक हैं और यह मानक तय करता है डीयू का सबसे एलीट तबका। स्टीफेंस, श्री राम कॉलेज ऑफ कॉमर्स आदि के छात्र और अन्य कॉलेजों में भी पढ़ने वाला यही तबका। इसकी बहुचर्चित छवि जो बॉलीवुड की फिल्मों और अंग्रेजी के बेस्टसेलर उपन्यासों में दिखती है वह इसी तबके की छवि है, पूरे डीयू की नहीं। बाकी छात्र समुदाय भी डीयू में आते ही इसी तबके जैसा बनने की कोशिश में लग जाता है या लगा दिया जाता है। लेकिन वैसी छवि बनाये रखना आम छात्रों के बस की बात नहीं है। एक छात्र ने हमसे बातचीत में बताया कि वह जानता है कि ‘वाटर पार्क जाना ही मेरे वोट की कीमत नहीं है लेकिन कुछ नहीं से बेहतर कुछ होता है। वैसे भी मैं अपने पैसे से वाटर पार्क नहीं जा सकता हूं। मेरे दोस्त जाते हैं और फेसबुक पर तस्वीरें पोस्ट करते हैं। मुझे भी जाने का मन करता है। मेरे वोट देने से कोई फर्फ नहीं पड़ता। तो अगर कोई एक दो दिन भी मुझे वाटर पार्क ले जाये, पार्टी दे तो मैं चला जाऊंगा।’

यहां की छात्र राजनीति में भी वर्चस्व, धन-बल और पहचान की राजनीति करने वाले लोगों का ही है। जिन्हें बाजार का खुले हाथों समर्थन तो मिलता ही है साथ में लिंगदोह कमेटी जैसे छात्र राजनीति विरोधी हथियार भी इन्हीं की मदद करते हैं। पिछले बीस वर्षों से डूसू (दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ) पर लगभग हर बार देश की दो सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टियों भाजपा और कांग्रेस की छात्र इकाइयों क्रमश: एबीवीपी और और एनएसयूआई का ही कब्जा रहा है। हालांकि अन्य दर्जन भर संगठन सक्रिय हैं। जिनमें आइसा, एसएफआई, आईएसएफ, एआईडीएसओ, डीएसयू आदि प्रमुख हैं। आइसा 2013 में आठ हजार से अधिक वोटों के साथ तीसरे स्थान पर रही थी।

एबीवीपी और एनएसयूआइ की राजनीति साफ है। डीयू में हरियाणा और उत्तर प्रदेश से आने वाले तथा दिल्ली में रहने वाले जाट और गूजर अधिक हैं। डीयू की राजनीति में सबसे अधिक महत्वपूर्ण यही तबका है। इनमें से वर्चस्वशाली और धन-बल वाले ऐसे लोग जिनकी राजनीति में घुसने की महत्वाकांक्षा होती है उनके लिए सबसे आसान और बेहतर विकल्प है डूसू की राजनीति। अगर उम्मीदवार ऊंची पहुंच और पैसे वाला हुआ तो सीधे डूसू और अगर थोड़ा कमजोर है तो कॉलेजों की राजनीति। डीयू में एक से एक सूरमा हैं जो पिछले दसियों सालों से चुनाओं के ठीक पहले कॉलेजों के बाहर दिख जायेंगे। इनका काम होता है चुनाव लड़वाना। अपने-अपने समुदायों के लोगों की गुटबाजी और डूसू में बड़े नेताओं के लिए कॉलेजों में वोट बैंक तैयार रखना इनका काम होता है। लिंगदोह कमेटी के निर्देशों के अनुसार अनेक पाबंदियों के चलते ये अधिकांशत: फर्स्ट इयर के ही छात्रों को चुनाव लड़वाते हैं, क्योंकि चुनाव लड़ने वाले लोग अक्सर फेल हो जाते हैं या अटेंडेंस कम होने के कारण उनका नामांकन खारिज हो जाता है। टिकट मिलने से पहले तक ये लोग ये नहीं बताते कि किस संगठन से हैं और अपने नाम से प्रचार करते हैं। जगह-जगह दीवारों पर लिंगदोह सिफारिशों की धज्जियां उड़ाते हुए रंगीन पोस्टर पूरी दिल्ली में देखने को मिल जायेंगे। एनएसयूआई और एबीवीपी भी फ्रेशर पार्टी में नामचीन लोगों को बुलाते हैं जिसमें छात्रों को फ्री पास बांटा जाता है, जिसका खर्चा टिकट मिल जाने पर या पहले से ही उम्मीदवार उठाते हैं। अधिकतर छात्र इन गतिविधियों से भी राजनीति से दूर हो जाता है। डूसू चुनाव में केवल तीस पैंतीस प्रतिशत वोट पड़ते हैं। मात्र चौदह हजार वोट लेकर तीन लाख के लगभग छात्रों के प्रतिनिधि चुन लिए जाते हैं।

एक रोचक बात है कि डिपार्टमेंट ऑफ बुद्धिस्ट स्टडीज डूसू के नेताओं का प्रिय विभाग है, क्योंकि यहां आसानी से एमए में प्रवेश मिल जाता है। अभी डूसू के निवर्तमान अध्यक्ष अमन अवाना भी वहीं से प्रथम वर्ष के छात्र हैं उन्होंने ग्रेजुएशन दयाल सिंह कॉलेज से किया और ऐन चुनावों से पहले उन्होंने एबीवीपी ज्वाइन किया और जीत गए।

डीयू के छात्रों ने तीन-चार वर्षों में अनेक संघर्षों में हिस्सा लिया और कमोबेश उनका राजनीतिकरण भी हुआ है। अन्ना आंदोलन, दामिनी आंदोलन हो या चार साला पाठ्यक्रम के खिलाफ डीयू के छात्र बड़ी संख्या में मौजूद थे। लेकिन साथ ही ये सवाल उठता है कि जो छात्र इन आंदोलनों में झंडे, टोपी और मोमबत्तियों के साथ मौजूद रहते हैं, वे अपनी समस्याओं को लेकर सक्रिय क्यों नहीं होते। जो कमोबेश राजनीतिकरण हुआ है अगर उसको बरकरार रखा जाये और छात्रों के मुद्दों पर आवाज उठाई जाये तो हालात काफी हद तक सुधर सकते हैं। इसका उदहारण चार साला पाठ्यक्रम के खिलाफ हुए ऐतिहासिक संघर्ष के रूप में हमारे सामने है। हजारों छात्रों ने इसके विरोध में संसद मार्च में हिस्सा लिया जो अभूतपूर्व था। लेकिन उस राजनीतिकरण की प्रक्रिया को बनाये रखने के लिए प्रतिबद्ध संगठनों की भी जरूरत होती है। कई वामपंथी संगठन भी डीयू में केवल चुनाव लड़ने के लिए ही आते हैं। बाकी साल भर इनका कोई अता-पता नहीं रहता। छात्रों के बीच निरंतर सक्रिय होने और उनको संगठित करने का ही परिणाम है कि आइसा पिछली दफा आठ हजार से अधिक वोटों के साथ तीसरे स्थान पर रही है। इस बार इस संगठन के प्रतिनिधि काफी उत्साहित नजर आ रहे हैं। दयाल सिंह से आइसा के प्रतिनिधि अमन नवाज बताते हैं कि तीस के लगभग कालेजों में हमारी यूनिट बन चुकी है, इस बार हम जीत भी सकते हैं। एसएफआई भी कैंपस के कुछ कॉलेजों और बाहर के कुछ कॉलेजों जैसे दयाल सिंह आदि में सक्रिय है। अभी कुछ दिनों पहले ही हाल ही में एआईएसएफ, एआईडीएसओ और एसएफआई ने संयुक्त रूप से चुनाव लड़ने की घोषणा की है। इससे एबीवीपी और एनएसयूआई की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। इस गठबंधन में आइसा को भी शामिल होना था लेकिन उसने यह प्रस्ताव खारिज कर दिया। आइसा पिछले नतीजों से उत्साहित है लेकिन अकेले जाने का यह निर्णय उसे इस बार भारी भी पड़ सकता है।

देखना यह भी है कि इस बार भी धन-बल की ही राजनीति की जीत होगी या छात्र किसी बदलाव के मूड में हैं। डीयू में छात्र राजनीति का भविष्य इस बात से ही तय होगा।

[author ]This article is originally written and published at Aaghaz by Avinash,Editor of Aaghaz-an youth magazine You can reach at: https://www.facebook.com/youthAaghaaz [/author]

 

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