जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय:
जेएनयू दिल्ली के बाहर के छात्रों के लिए एक अजूबा है। न केवल यहां की शिक्षा का मॉडल अपने आप में अनूठा है, बल्कि यहां की छात्र राजनीति भी पैसे और पॉवर की जगह विचार और सामाजिक चेतना से संचालित होती है। आखिर ऐसा क्या है वहां कि लिंगदोह कमेटी ने भी इसे आदर्श चुनाव व्यवस्था माना था? इसकी पड़ताल कर रहे हैं जेएनयू के शोधछात्र ताराशंकर–
छात्र राजनीति को अक्सर मुख्यधारा की राजनीति का ककहरा माना जाता है। लेकिन ये समझना जरूरी है कि मुख्यधारा की राजनीति और छात्र राजनीति में तमाम बुनियादी फर्क होते हैं। जहां मुख्यधारा की राजनीति का मुख्य उद्देश्य खुद प्रशासक या सरकार बनना होता है, वहीं छात्र राजनीति का मुख्य उद्देश्य प्राय: विश्वविद्यालय या कॉलेज प्रशासन के खिलाफ होकर छात्र हितों की रक्षा करना होता है। दूसरे, छात्र राजनीति हर साल बदलती है ना कि पांच साल में एक बार। फिर भी कैंपस की छात्र राजनीति समाज में व्याप्त विविधता, गैरबराबरी, जातिवाद, धर्मवाद, धनबल, बाहुबल इत्यादि से अछूता नहीं रह पाता।
इस लिहाज से जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) की छात्र राजनीति निश्चित रूप से पूरे देश में एक अलग ही स्थान रखती है। छात्र राजनीति को लेकर गठित जीएम लिंगदोह कमेटी ने भी इसे आदर्श छात्र राजनीति के रूप में स्वीकार किया है। क्योंकि यहां हिंसा, धनबल या बाहुबल का प्रयोग नहीं होता है। जेएनयू के चार दशकों के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ कि कोई बाहुबली या दबंग उम्मीदवार चुनाव जीता हो। यहां शायद हिंसा की कोई जगह इसलिए भी नहीं बचती क्योंकि यहां तर्कों, विचारों और बहस पर आधारित राजनीति होती है। हिंसा या लड़ाई की नौबत तो तब आती है जब तर्क खत्म हो जाएं या बहस का रास्ता ही बंद हो जाए।
जेएनयू में कम से कम खर्च में एक स्वस्थ राजनीति की एक लंबी परंपरा विकसित हो गयी है। समाज और देश दुनिया की तमाम समस्याओं को समेटे हुए, हाथ से बने रंगीन पोस्टर जेएनयू की राजनीति को एक अलग पहचान देते हैं। जेएनयू की लाल ईटों की नंगी दीवारें इन पोस्टरों से साल भर जीवंत रहती हैं। जहां देश के अधिकांश विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ चुनाव में लाखों-करोड़ों रुपये खर्च होते हैं, वहीं जेएनयू में ये चंद हजार रुपयों में आसानी से होता है। कितना भी गरीब छात्र हो, यहां आसानी से चुनाव लड़ लेता है। जेएनयू में छात्र राजनीति एक वैचारिक रूप से सुदृढ़ लिखित संविधान पर आधारित है और शायद एक अनोखी बात यह है कि चुनाव में विश्वविद्यालय प्रशासन का कहीं से कोई रोल नहीं होता। सब कुछ छात्र अपने दम पर करते हैं। क्लासरूम के बाहर ढाबे, कैंटीन पर आप चाय की चुस्कियों के साथ स्थानीय, राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय वैचारिक बहस कर सकते हैं जहां प्रोफेसर भी छात्रों के साथ बराबरी में बैठकर बहस में शामिल होते हैं। रात तीन-चार बजे तक छात्रों का जागना और कैंपस में घूमना आम बात है। हॉस्टल के मेस खाने के लिए कम, बल्कि तमाम समस्याओं-मुद्दों पर आयोजित बहसों के लिए अधिक जाने जाते हैं। जेएनयू एक ऐसा कैंपस माना जाता है जहां आप क्लासरूम से अधिक ढाबों, कैंटीनों में बैठकर बहसों से सीखते हैं। एक ऐसा कैंपस जहां छात्रसंघ अध्यक्ष या किसी प्रोफेसर से मिलना उतना ही सहज होता है जितना अपने परिवार के सदस्यों से मिलना। चूंकि जेएनयू एक आवासीय कैंपस है जहां प्रोफेसर, कर्मचारी, छात्र सभी रहते हैं इसलिए भी यहां पदानुक्रमिक विभेद कम ही पाया जाता है। राजनैतिक रूप से ये कैंपस इतना जीवंत है कि शायद यहां का कोई छात्र राजनीति में रुचि न रखता हो। जेएनयू में चुनाव को अक्सर ‘फेस्टिवल ऑफ कम्प्टीटिव आइडियोलॉजी’ कहा जाता है।
कैंपस से जुड़े मुद्दों के साथ यहां की राजनीति कैंपस के बाहर जनहित के मुद्दों पर सड़कों पर संघर्षरत दिखाई देती है। देश भर में कहीं भी विस्थापन की समस्या हो, आदिवासी हितों का हनन हो या दलितों-महिलाओं का शोषण हो, जेएनयू एक सशक्त आवाज बनकर उभरता है। यहां के छात्र जीवन के बाद भी आप जहां कहीं भी जाते हैं, शोषण के खिलाफ आवाज उठाते हैं। ये कहा जाता है कि ‘Once a JNU student, always an activist’ क्योंकि कैंपस से बाहर निकलने के बाद भी यहां का छात्र जीवनभर समाज की बेहतरी की कोशिश में रहता है। हिंदुस्तान टाइम्स जनवरी 2013 के अपने एक लेख में कहता है कि इक्वलिटी, लिबर्टी एंड फ्रैटर्निटी अगर सही मायनों में कहीं जिंदा है तो वो है जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी। यहां विरोध भी पम्फलेट-पर्चे व जुलूस निकाल कर होते हैं।
चुनाव के दौरान रूम टू रूम कैंपेन, पम्फलेट, पर्चे, पोस्ट-डिनर टॉक, सेमिनार इत्यादि से जेएनयू जिंदा हो उठता है। यहां ‘लड़ो पढ़ाई करने को, पढ़ो समाज बदलने को’ का नारा देते हुए कहा जाता है कि ‘जब राजनीति हमारा भविष्य तय करती है तो क्यों न हम राजनीति को तय करें’। राजनीति में सक्रिय रहते हुए पढ़ाई की गुणवत्ता कैसे बनाए रखी जाय, यह बात यहां बहुत अच्छे से जानी जा सकती है। यहां एक रवायत रही है किसी भी प्रकार की सामाजिक गैरबराबरी, शोषण और सरकार की जनविरोधी नीतियों का खुले तौर पे विरोध करने की। यही वजह है कि राष्ट्रपति हों या प्रधानमंत्री या फिर कोई भी राजनेता, यहां आने पर उन्हें असहज कर देने वाले सवालों से रूबरू होना पड़ता है। कैंपस से लेकर जंतर-मंतर, पार्लियामेंट, मंडी हाउस इत्यादि से लेकर दिल्ली में शायद ही कोई ऐसा सरकारी ऑफिस या भवन हो जो जेएनयू छात्रों के नारों से आये दिन न गूंजता हो।
कुछ एक बात हैं जो जेएनयू को अन्य शैक्षणिक संस्थानों से अलग बनाते हैं। जैसे कि पूरे देश में इससे सस्ती और बेहतर शिक्षा शायद ही कहीं मिले, एक भी उदाहरण ऐसा नहीं मिलेगा आपको कि कोई गरीब छात्र यहां से इसलिए चला गया हो कि वो फीस भरने में सक्षम न रहा हो। मदरसा शिक्षा को मान्यता देने की बात हो या देश के पिछड़े जिलों से आने वाले छात्रों को अलग से डेप्रिवेशन पॉइंट देने की व्यवस्था हो, लड़कियों के लिए प्रवेश परीक्षा में अलग से कुछ पॉइंट्स देने की अनोखी व्यवस्था या फिर सभी गरीब छात्रों को स्कालरशिप देने की व्यवस्था हो, जेएनयू देश का एकमात्र विश्वविद्यालय है इन मायनों में और ये सब लंबी छात्र राजनीति की बदौलत ही संभव हुआ है।
यहां चुनाव में जेंडर इक्वलिटी दिखाई देती है या कम से कम यहां कोई भी लड़की चुनाव उतने ही सहज तरीके से लड़ सकती है जैसे कि कोई लड़का। विदेशी छात्रों का भी एक बड़ा समूह रहता है यहां और अक्सर वो भी चुनाव में उतरते हैं। विदेशी छात्रों का स्वयं का अपना चुनाव भी होता है उनके हितों को यूनिवर्सिटी में रखने के लिए। चुनाव मुद्दों पर होता है जिनमं कैंपस में छात्रहितों के मुद्दों से लेकर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर भी अपना पक्ष रखा जाता है। एक जो सबसे अच्छी बात है यहां कि जाति, धर्म, धनबल, बाहुबल के आधार पर शायद ही कोई उम्मीदवार चुनाव जीतता हो। एक साधारण वस्त्र, चप्पल डाले, विनम्र, जुझारू उम्मीदवार ही जीतता है। अन्य तमाम कैंपसों से अलग यहां का कोई भी छात्र अध्यक्ष या किसी भी छात्रसंघ पदाधिकारी से कभी भी बेझिझक मिल सकता है। लैंगिक शोषण रोकने और छात्रों को जेंडर सेंसिटाइज करने के लिए यहां जीएसकैश नामक संस्था है जो छात्रों के संघर्ष के बदौलत ही 1997 के विशाखा जजमेंट के तुरंत बाद ही यहां बनाई गई थी। इसकी वजह से भी आज कैंपस जेंडर इक्वलिटी के लिए जाना जाता है। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि यहां सब कुछ अच्छा ही है। पिछले वर्षों में यहां कुछ विचलन देखने को मिले हैं खासकर लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों के लागू होने के बाद। उम्र सीमा घटाने और चुनाव लड़ने की संख्या में कमी करने से जुझारू छात्रनेताओं की नयी पीढ़ी बनने में मुश्किलें आ रही हैं। एक तरह से अराजनीतिकरण हो रहा है। छात्रों की शिकायत है कि राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों की राजनीति के चक्कर में कैंपस से जुड़े मुद्दे पीछे छूट जाते हैं। पिछले वर्षों में लैंगिक शोषण के कई मामले दर्ज हुए हैं जो कहीं न कहीं कैंपस में गिरते नैतिक स्तर और लड़के-लड़कियों के बीच छीजते स्वस्थ संबंध का भी सूचक है। इससे कैंपस का एक तरह का अराजनीतिकरण हो रहा है। फिर भी यहां के छात्रों, प्रोफेसरों की सतत कोशिश है कि बदलते समय में कैंपस को पूंजीवाद और बाजारवाद के चंगुल से बचाते हुए सस्ती और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा छात्रों को मिल सके।
[author ]This article is originally published at Aaghaz-an youth magazine
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