कुछ छात्र ढोल पर नाच रहे थे और कुछ उन्हीं की इस हरकत को गुंडागर्दी बताते हुए नयी यूनियन को कोस रहे थे! यह भी हो सकता है की पहले वर्ष के जो विद्यार्थी अब इस नयी यूनियन की सेलेब्रेशन्स को गुंडागर्दी समझ रहे हैं उन्होने इन्हीं को वोट देकर जितवाया हो!
मत देने के कुछ घंटों बाद ही असली चेहरा सामने आ जाता है और उन मतदाताओं का मज़ाक उड़ाया जाता है जो सच में यह समझ कर मत देने गये थे की यूनिवर्सिटी में छात्र हितों को समझने वाली एक अच्छी यूनियन बनेगी!
जीतने के बाद मीडीया द्वारा पूछे गये सहज सवालों का जवाब भी कुछ ऐसा होता है जो उमीदों को तोड़ देता है! क्या विश्वविद्यल्य के प्रेसीडेंट साहब यह भी नहीं बता सकते की सबसे पहले क्या करवाएँगे और कब?
Social media पर विरोधी दलों के समर्थकों को नीचा दिखाया जाता है और उन्हें हारने की बधाई दी जाती है! क्या राजनीति सच में वह नशा है जो एक आम छात्र को अपना नाम बदलने पर मजबूर कर देती है और उसको अपने छात्र जीवन के चार पाँच साल एक ही चीज़ पर बर्बाद करने की प्रेरणा देती है, उसको नैतिकता के रास्ते से भटका देती है अथवा उसके ईमान को खरीद लेती है ?