आरक्षण उस प्रक्रिया का नाम है जिसमे भारत की सरकार द्वारा सरकारी संस्थानोँ मेँ कुछ पिछड़ी जातियो के लिए सीटेँ रोक ली जाती है।अर्थात उस स्थान पर केवल एक विशेष जाति का व्यक्ति ही काम कर सकता है।यह विशेष जातियाँ वह वर्ग है जिन्हे प्राचीन भारत मेँ निचली जाती का दर्जा दिया जाता था,और इन लोगो को उच्च वर्ग के नीचे उनके आदेशो पर ही जीवन बसर करना पड़ता था। जिस वजह से वे कभी अपना व अपने परिवार का उद्धार नहीँ कर पाते थे।
भारत मेँ आरक्षण की शुरुआत ब्रिटिश राज मेँ ही कर दी गई थी।अंग्रेजोँ का मकसद इसका इस्तेमाल भारत को जातियोँ के आधार पर बाट कर उस पर शासन करना था और वह इस प्रक्रिया मेँ सफल भी हुए। परंतु अफसोस की बात यह है कि अंग्रेजोँ के जाने के बाद भारत के संविधान निर्माताओं ने भी इस नीति पर अमल करना जारी रखा। उनका विचार था कि इस नीति से भारत की दबी कुचली जातियों का उद्धार होगा।सरकारी नौकरियोँ वह कॉलेज मेँ अपने लिए सीट आरक्षित कर वे अपना हक पा सकेंगे।परंतु क्या एक वर्ग के बारे मेँ सोचकर बाकी सभी वर्गो को नजरअंदाज करना सही है? क्या यह प्रक्रिया पूर्ण रुप से देश के सभी नागरिकोँ के हित मेँ है? आरक्षण का यह विचार बेरोज़गारी से उत्पन्न हुआ है, आर्थिक-शैक्षिक-सामाजिक रुप से कमजोंर तबको के लिए बेरोज़गारी एक बड़ी समस्या है। इसी बेरोज़गारी के जंजाल से बचने के लिए आरक्षण जैसे कई प्रावधान प्रस्तावित किए जाते हैँ जिससे कि लोगोँ को गरीबी से उभारा जा सके और भारत एक संपन्न राष्ट्र बन सके। परंतु क्या यह सुविधाएँ असल और पर जरुरतमंद लोगोँ तक पहुंच पाती है? आर्थिक तौर से पिछड़े लोग अभी भी पीछे ही रह गए हैँ, इन सुविधाओं का लाभ भी सम्पन्न वर्ग ही उठा रहा है। इसी तरह गुजरात मेँ ‘संपन्न’पटेलोँ का आरक्षण-विस्फोट ना आकस्मिक है और न अंतिम। अगर लोग बड़ी संख्या मेँ बेरोज़गारी की चपेट मेँ है तो इसका सीधा संबंध जातिगत आरक्षण से नहीँ है,इसका संबंध रोज़गार लुप्प होने से है। मान लीजिए आज भारत मेँ जातिगत आरक्षण का प्रावधान समाप्त कर दिया जाए और सभी लोग सामान्य श्रेणी मेँ आ जाएं,तो उस हालत में भी रोजगार पाने वालोँ की कुल संख्या मेँ तो कोई वृद्धि नहीँ होगी। व्यवहार मेँ आर्थिक आरक्षणों का लाभ उच्च और शक्तिशाली जातियों के सदस्योँ को मिलेगा न कि कमजोर तबको के गरीबो को। किन्हीं गरीबो को मिलेगा इस पर भी संदेह होना स्वाभाविक है।
विचार करने वाली बात यह भी है कि जातिगत आरक्षणों ने भारत की हजारोँ वर्षोँ की अमानवीय समाजिकी को भी मानवीय गरिमा दी है। जिस जातिगत भेदभाव के बारे मेँ सोचकर हम झन्ना उठते थे आज आरक्षण की मांग कर हम उन्हीं जातियों के आधार पर देश को बॉट रहे हैँ।
अारक्षण की मांग करना ऐसा है जैसे पूरी दुनिया को लिखित मेँ बताना कि,हाँ मेरे अंदर वह कौशल वह शक्ति नहीँ है कि मैँ बिना किसी प्रावधान के अपने जीवन की ऊंचाइयोँ को छू सकॅू।