इलाहाबाद विवि :
पूरब का आक्सफोर्ड कहा जाने वाला इलाहाबाद विवि अपने अंदर एक शताब्दी से भी अधिक का गौरवशाली इतिहास समेटे हुए है। इसने जहां औपनिवेशिक और स्वतंत्र भारत में उच्च शिक्षा की बुनियाद रखी वहीं देश को नई दशा व दिशा देने वाले अनगिनत राजनेता, लेखक-कवि, कलाकार दिए। एक लंबे अरसे तक इसका अस्तित्व शिक्षा के सर्वोच्च केंद्र के रूप में बने रहने के साथ ही राजनीति और लोकतंत्र की शिक्षा के सर्वोच्च केंद्र के रूप में भी बना रहा। शुरुआती दिनों में मेरे दिमाग में विवि की गौरवशाली छवि मौजूद थी। मैं खुश थी कि मैं उस विवि का हिस्सा हूं जिसका कभी मोतीलाल नेहरु, वीपी सिंह, चंद्रशेखर, गुलजारीलाल नंदा जैसी हस्तियां हिस्सा रही हैं। लेकिन ये भी सच है कि इतिहास वर्तमान नहीं होता। मैं जिस उम्मीद से यहां आई थी उसका अर्धांश भी यह विवि पूरा नहीं कर पा रहा। जब मैं यहां आई, कर्मचारियों-अध्यापकों की कमी की वजह से विवि प्रशासन और पठन-पाठन की दशा दयनीय थी। छात्राओं को आये दिन परिसर के भीतर शोहदों की अश्लील टिप्पणियां सुनने को मिलतीं। छात्र संघ बहाली को लेकर आये दिन उत्पात होना आम बात थी। विवि की बुलंद इमारतों पर समय के साथ बेपरवाही की धूल-मिट्टी जम गयी थी और परिसर में लगी बड़ी सी घड़ी जो छात्रों को कभी समय की महत्ता का पाठ पढ़ाती थी, समय के साथ वह बंद पड़ चुकी थी। इतना जरूर था कि उन्हें देखकर हड़प्पा के पुरास्थलों की भांति विश्वविद्यालय के गौरवशाली इतिहास का अंदाजा जरूर हो जाता था।
निश्चय ही यह अनुभव मेरे जैसी पिछड़े पृष्ठभूमि की लड़की जो एक बेहतर भविष्य का सपना संजोये आई थी, ये एक निराशाजनक और हतोत्साहित कर देने वाला था। लेकिन साल 2011 के अंत तक मैं विवि की स्थिति-सुधार को लेकर पुन: आशावान हो गयी। यही वह समय था जब छात्र-संघ बहाली को लेकर अपने निजी और सार्वजनिक हितों के लिए छात्र संगठनों और छात्रों का संगठित आंदोलन अपने चरम पर पहुंच गया। इससे पहले साल 2005 में विवि को केंद्रीय विवि का दर्जा दिए जाने के बाद पढ़ाई के गिरते स्तर, छात्रनेताओं के उपद्रव, विवि परिसर में बढ़ती आपराधिक घटनाओं आदि का हवाला देकर छात्रसंघ चुनाव को प्रतिबंधित कर दिया गया था। तात्कालिक परिस्थितियों में छात्रों को यह निर्णय सही लगा और अगले सात साल तक विवि में चुनाव नहीं हुए। लेकिन समय के साथ यह अनुभव किया गया कि चुनावों पर प्रतिबंध लगाने से कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है उल्टे छात्रों की तमाम जरूरतों और मांगों को प्रशासन के सामने रखने का कोई माध्यम भी नहीं रह गया। स्थिति अब भी बहुत सुधरी नहीं है। प्रशासन आज पहले कहीं अधिक तानाशाह बन गया है। छात्रों की आवाज में पहले जैसी प्रतिबद्धता और जोर नहीं रहा और विवि प्रशासन छात्र हितों के प्रति दिन-ब-दिन उदासीन होता चला गया। 2011 के आंदोलन में छात्रों को छात्रसंघ चुनाव के रूप में पुरानी और मौजूदा समस्याओं का हल दिखा और लगा कि अब उनको उनकी आवाज वापस मिलनी चाहिए। इस तरह एक लंबे अवकाश के बाद आखिरकार 22 दिसंबर, 2011 को वह दिन आ गया जब छात्रसंघ चुनाव पुन: बहाल करने की घोषणा हुई।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति हमेशा से कुछ मायनों में अलग रही है। जैसे-अच्छे जमीनी नेताओं का निकलना, चुनाव में धनबल और बाहुबल का प्रयोग। एक समय था जब यह विश्वविद्यालय छात्र राजनीति का आदर्श उदाहरण हुआ करता था लेकिन कालांतर में (खासकर पिछले दो दशकों में) यह गुंडागर्दी, हिंसा और गिरती नैतिकता का अड्डा सा बन गया। अब छात्रसंघ चुनाव में राज्य के मुख्य राजनैतिक दलों का अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप और सहयोग होता है। यहां चुनाव लड़ना प्रत्याशियों द्वारा देश की किसी बड़ी राजनैतिक पार्टी का टिकट सुनिश्चित करना भर रह गया। पिछले कुछ वर्षों में देखा गया है कि कुछ प्रत्याशियों को सीधे तौर पर समाजवादी पार्टी और बसपा का सहयोग मिलता है और शायद इसीलिए यहां की राजनीति में जाति एक महत्वपूर्ण रोल अदा करती है। एक समय था जब उच्च जाति के प्रत्याशी जनेऊ दिखाकर और पूजा की थाली घुमाकर वोट मागंते थे। हालांकि अब यह नहीं होता लेकिन राजनीति आज भी जाति के नाम पर की जाती है। पिछले एक दशक में वाम राजनीति ने भी अपनी गहरी पैठ बनाई है यहां की राजनीति में। हिंसा की छोटी-मोटी वारदात आज भी देखने को मिल जाती है। पहले तो गोलियां भी चल जाती थीं और दबंग और बाहुबली प्रत्याशियों द्वारा विरोधी उम्मीदवार को धमकाने से लेकर उसका अपहरण भी करवा लिया जाता था। पिछले एक दशक में जो मुख्य बदलाव आया है वो ये है कि पहले उच्च जाति के प्रत्याशी (जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय) ही चुनाव लड़ते दिखाई देते थे। लेकिन अब पिछड़े और दलित छात्रों की संख्या बढ़ने से तथा राज्य स्तर पर सपा व बसपा जैसी पार्टियों के उदय होने से दलित-पिछड़े वर्ग के प्रत्याशी भी मजबूत तौर पर उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। अब सिर्फ दबंग, पैसे वाले या राजनैतिक पार्टियों के समर्थित उम्मीदवार ही नहीं, बल्कि निर्दल, गरीब और समाज के पिछड़े तबकों से आने वाले छात्र भी खुली भागीदारी करते हैं।
जैसी भी हो, छात्र राजनीति देश के लिए नेताओं की पौध समान है। जरूरत है सही और स्वस्थ पौध लगाने की, ताकि संसद गुंडों-मवालियों, अनपढ़ों की बजाय समाज को दिशा देने वाले जिम्मेदार नेताओं से भरी रहे। छात्र राजनीति बंद होने से राजनीति समाज के दबंग, बाहुबली किस्म के नेताओं की बपौती सी बन जाती है।
[author ]This article is originally written by Shalu Yadav and published at Aaghaz-an youth magazine
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